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"हिंदू-राष्ट्र" की मांग भविष्य में "दलितआदिवासी-राष्ट्र" की मांग को जन्म देगी : धनंजय कुमार सिन्हा


वर्तमान समय में "हिंदू-राष्ट्र" की उठ रही मांग भविष्य में "दलितआदिवासी-राष्ट्र" की मांग को पैदा करेगी।

वर्तमान में हिंदू-राष्ट्र की उठ रही मांग भी राजनीति से प्रेरित है। इस कुचक्र को हिंदू नेताओं द्वारा वोट के लाभ और सत्ता पाने की लोलुपता की वजह से चलाया जा रहा है। भविष्य में भी दलितआदिवासी-राष्ट्र की मांग राजनीति से ही प्रेरित होगी। उस समय उस कुचक्र को दलित-आदिवासी नेताओं द्वारा वोट के लाभ और सत्ता पाने की लोलुपता की वजह से चलाया जायेगा।

आज भी देश के अनेकों सीधे-साधे लोग इस राजनैतिक कुचक्र से भ्रमित होकर हिंदू-राष्ट्र की मांग करने में लगे हुए हैं। भविष्य में भी देश के अनेकों सीधे-साधे लोग उस समय के राजनैतिक कुचक्र से भ्रमित होकर दलितआदिवासी-राष्ट्र की मांग करने लगेंगे।

आज देश में उठ रहे हिंदू राष्ट्र की मांग से मुसलमान देशवासियों को जलील होना पड़ रहा है। भविष्य में दलितआदिवासी-राष्ट्र की मांग से हमारी हिंदू पीढ़ियों को जलील होना पड़ेगा।

बेहतर हो कि राजनीतिज्ञ ऐसे हथकंडों का इस्तेमाल छोड़ दें, ताकि सभी देशवासी आपस में मिलजुल कर रहें। भविष्य में भी ऐसे मिलते-जुलते झमेले पैदा न हों।

(दरअसल यह आलेख मैंने अपने एक परिचित एवं फेसबुक फ्रेंड श्रेया स्नेहा द्वारा किए गए एक कमेंट की प्रतिक्रिया लिखते-लिखते लिखी। जब अपनी प्रतिक्रिया को मैंने पोस्ट करना चाहा तो फेसबुक ने मना कर दिया और कहा कि मेरी प्रतिक्रिया 8000 शब्दों से ज्यादा की है, इसलिए वह पोस्ट नहीं हो सकेगी। तो अब मैंने उस प्रतिक्रिया को आलेख का रूप दे दिया। - धनंजय कुमार सिन्हा)

प्रकृति ने मनुष्य पैदा किया, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, नदी-सागर जैसे अनेक चीजों को पैदा किया। सबमें अलग-अलग वृतियां दीं, अगल-अलग प्रकार की ऊर्जाएं भरीं।

पर प्रकृति ने धर्म, जाति जैसी चीजों को पैदा नहीं किया, और न ही प्रकृति ने किसी देश या समाज के संविधान को पैदा किया।

प्रत्येक धर्म की शुरूआत मनुष्य या मनुष्य समूह द्वारा की गई। बाद की पीढ़ियों में उसमें नियम-परंपराएं जुड़ती रहीं।  धर्म जैसे-जैसे पुराना होता गया तो सर्वसाधारण में ऐसी मान्यताएं जन्म लेने लगीं कि जैसे धर्म आसमान से धरती पर उतर कर आ गया हो, पर हकीकत यह नहीं है।

बौद्ध धर्म और जैन धर्म नया है, इसलिए इसके प्रारम्भ को हम लोग जानते हैं। पर अन्य धर्म पुराने होने के कारण या उसका सटीक प्रारंभ नहीं पता होने के कारण अनेक धर्मावलंबी उसे आसमान से उतरा हुआ मानने लगते हैं।

प्रकृति ने आदमी बनाया, और हर आदमी इस प्रकृति का अंश है। केमिकल जांच में भी सबमें एक जैसी चीजें हैं। प्रकृति की नजर में सब सामान हैं। बस उनकी वृत्तियों में अलग-अलग समय में अलग-अलग प्रकार के उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। इससे जीवन में रूचि और आकर्षण भी बना रहता है। सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार की वृत्तियों के अपने-अपने महत्व और अपनी-अपनी उपयोगिताएं हैं।

प्रकृति ने धरती पर जितने भी आदमी बनाएं हैं, जितने भी शरीर बनाएं हैं, उन पर किसी तरह का कोई धर्म-जाति का बोझ नहीं दिया। ये धर्म-जाति जैसे विभेद आदमी ने खुद पैदा कर लिए। इसकी शुरूआत अच्छे उद्देश्यों से की गई थी, पर बाद में कुछ लोग स्वार्थ सिद्धि में इसका दुरूपयोग करने लगे, और अनेक सीधे-साधे लोग उन्हें सही मानकर भ्रमित हो गए। 

यह संयोग है कि कोई पहले पैदा हुआ, और कोई बाद में। यह भी संयोग है कि हिंदू धर्म वर्तमान में उपलब्ध सबसे पुराना धर्म है। बाकी के धर्म उसके बाद आए। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हमें अन्य को नीचा दिखाने का प्रयास करना चाहिए, बल्कि हमें अन्य का सम्मान करना चाहिए। तभी हम खुद भी सम्मान के पात्र बनेंगे।

जहां तक भारत की बात है, तो निश्चित ही हिंदू धर्म के लोग इस भूखंड पर पहले आए। बाद में बौद्ध एवं जैन धर्म यहीं से शुरू हुए। इस्लाम और ईसाई धर्म के लोग काफी बाद में इस भूखंड पर आए। सिक्ख धर्म की भी शुरूआत यहीं से हुई।

बाद में 1947 में जब देश अंग्रेजों की सत्ता से आजाद हुआ। उसके बाद उस समय मौजूद लोगों ने आगे चलने के कुछ नियम-कानून बनाए जिसे देश का संविधान कहा जाता है, और उसी के अनुसार चलने की बात कही गई थी।

अब जो हिंदू राष्ट्र की बातें हो रही हैं, और अनेक सीधे-साधे लोग इन बातों से भ्रमित होकर जोर-शोर से ऐसी बातों को उठा रहे हैं, तो आपको बताना चाहता हूं कि ऐसा करके एक तरफ तो हमलोग हिंदू धर्म के ही भीतर मौजूद सामान्य मानव धर्म की अनदेखी कर रहे हैं। दूसरी तरफ अपनी अगली पीढ़ियों के लिए एक बड़ा गड्ढा भी खोद रहे हैं।

हमारी ही इन भ्रमित मांगों का अनुसरण कर आने वाले कुछ दशकों में दलित एवं आदिवासी भाई लोग भी भारत के संविधान को दरकिनार कर यह कहने लगेंगे कि इस भारत भूखंड पर आदिवासी ही पहले से मौजूद थे, हिंदू बाद में आए, और वे दलितआदिवासी-राष्ट्र की मांग करने लगेंगे और हिंदुओं को देश छोड़ने के लिए कहने लगेंगे। 

अभी जो हम हिंदू-राष्ट्र का बीज बो रहे हैं, वह हमारी आने वाली पीढ़ियों पर दलितआदिवासी-राष्ट्र की मांग के रूप में वज्र बनकर गिरेगा।

और अगर आज हम सब स्वतंत्र "भारत के संविधान" का सम्मान करते हुए उसके नियमों के अनुसार अनुशासित होकर चलेंगे तो भविष्य में भी अन्य लोग जिसमें दलित एवं आदिवासी प्रमुख हैं, वे भी अनुशासित होकर चलेंगे।

पर आज का हमारा "भारतीय संविधान को दरकिनार कर हिंदू-राष्ट्र की मांग करना और अप्रत्यक्ष रूप से मुसलमानों को भागने के लिए कहना" आने वाले दिनों में दलित एवं आदिवासी भाइयों को भी भारतीय संविधान के प्रति अनुशासनहीनता के लिए प्रेरित करेगा, उकसाएगा, और भविष्य में वे भी दलितआदिवासी-राष्ट्र की मांग करने लगेंगे और हिंदुओं को भगाने की बातें करने लगेंगे। इससे उस समय हमारी भविष्य की हिंदू पीढ़ियों के लोगों को वही दुख झेलना पड़ेगा जो दुख आज मुसलमान भाई लोग यह सुनकर महसूस करते हैं कि हिंदू राष्ट्र बनाना है।

हालांकि हकीकत यह है कि हम सबके यह कहने से कि "हिंदू राष्ट्र बनाना है और मुसलमानों को भगाना है", वास्तव में ऐसा कुछ होने वाला नहीं है। 

और न ही भविष्य में जब दलितआदिवासी-राष्ट्र की मांग उठेगी और हिंदुओं को यहां से भगाने की बात उठेगी, तब भी वैसा कुछ परिणाम में नहीं हो पायेगा।

लेकिन ऐसी बातें करके भोली-भाली जनता को आपस में लड़वाकर आज भी कुछ लोग अपनी राजनैतिक रोटियां सेंक रहे हैं, और भविष्य में दलितआदिवासी-राष्ट्र की मांग करके सेकेंगे। 

पर यदि हम भविष्य में दलितआदिवासी-राष्ट्र की मांग को राजनैतिक मुद्दा नहीं बनने देना चाहते हैं, और अपनी भविष्य की पीढ़ियों को जलील होने से बचाना चाहते हैं तो हमें हिंदू-राष्ट्र की मांग के नाम पर राजनैतिक रोटियां सेंकना बंद करना होगा।


(यह आलेख स्वतंत्र पत्रकार एवं अमन समिति के संयोजक धनंजय कुमार सिन्हा द्वारा लिखा गया है)

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